शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

कायनात में क़ुदरत की रहमत के गवाह


कायनात में क़ुदरत की रहमत के गवाह
निदा फ़ाजलीशायर और लेखक
ग़ज़नी, अफ़ग़ानिस्तान के एक इलाक़े का नाम है. फिराक़ के गोरखपुर, जिगर के मुरादाबाद की तरह महमूद ग़ज़नवी भी अपने नाम के साथ ग़ज़नी जोड़ता था.
वह नस्ल से तुर्क था, जिसने जीसस के हज़ार साल बाद ग़जनी में अपनी हुकूमत स्थापित की थी. महमूद ने भारत पर कई बार हमले किए, लेकिन इन हमलों का संबंध धर्म से कम और लूटमार के अधर्म से ज़्यादा था.
वह नाम से मुसलमान ज़रूर था, लेकिन हक़ीक़त में पेशेवर लुटेरा था, जो बार-बार अपने सिपाहियों के साथ आता था और जो इस लूट में मिलता था उसे लेकर चला जाता था.
पंडित नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘भारत की खोज’ में लिखा है, "महमूद एक लुटेरा था. धर्म को उसने लूटमार में एक शस्त्र की तरह इस्तेमाल किया था. आख़िरी बार वह हिंदुस्तानियों के हाथों ऐसा हारा कि उसे अपनी जान बचाकर भागने पर मजबूर होना पड़ा. उसके काफ़िले में जितनी औरते थीं वे यहीं के सिपाहियों के घरों में बस गईं."
महमूद के साथ गुजरात के सोमनाथ मंदिर का जिक्र भी इतिहास में मिलता है.
इस आक्रमण को इतिहास में धार्मिक विवाद का रूप भले ही दे दिया जाए, लेकिन पर्दे के पीछे की हक़ीक़त दूसरी है. लुटेरों के लालच या लोभ को मूरत या क़ुदरत से ज़्यादा धन-दौलत से मुहब्बत होती है और इस मुहब्बत में धर्म को बदनाम किया जाता है.
नरेश सक्सेना ने फ़ैज़ाबाद में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने पर एक कविता लिखी थी, कविता में वर्तमान के धर्मांतरण की तुलना अतीत के जुनून से की गई है, कविता की पंक्तियां हैं
इतिहास के बहुत से भ्रमों में सेएक यह भी हैकि महमूद ग़ज़नवी लौट गया थालौटा नहीं था वह-यहीं थासैंकड़ों बरस बाद अचानकवह प्रकट हुआ अयोध्या मेंसोमनाथ में किया था उसनेअल्लाह का काम तमामइस बार उसका नारा था-जयश्रीराम
महमूद ग़ज़नवी जिन औरतों और मर्दों को छोड़कर अपनी जान बचाकर भागा, उनकी औलादें कई-कई नस्लों के बाद कहाँ-कहाँ है, ईश्वर के किस रूप की पुजारी है, चर्च में उसकी स्तुति गाती है, मस्जिद में सर झुकाती हैं या मूरत के आगे दीप जलाती हैं. मैंने सैलाब नामक एक सीरियल के टाइटिल गीत में लिखा है.
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों सेकिस को मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं.
ख़ुदा की ज़मीन
कोई नगर हो या देश हो, उसमें बसने वाले या वहाँ से बाहर जाने वाले सब एक जैसे नहीं होते. गज़नी से महमूद भी भारत आया था और वे बुज़ुर्ग भी आए थे जो सारी दुनिया को एक ही ख़ुदा की ज़मीन मानते थे.
इन्हीं बुजुर्गों की नस्ल के एक मुहम्मद फ़तह खाँ के परिवार में, पंजाब के ज़िला होशियारपुर में 1928 में एक बेटे का जन्म हुआ. बाप ने उसका नाम मुहम्मद मुनीर ख़ान नियाज़ी रखा. अभी यह बच्चा मुश्किल से एक साल का ही था कि बाप अल्लाह को प्यारे हो गए.
बाप की मौत ने घर ख़ानदान के हालात ही नहीं बदले, बल्कि मुहम्मद मुनीर ख़ान नियाज़ी ने अपने चार लफ़्जों के नाम को दो लफ़्जी नाम में बदल दिया. अब इसमें न मुहम्मद था न ख़ान. सिर्फ़ दो लफ़्ज थे मुनीर नियाज़ी.
मुनीर नियाज़ी, फैज़ अहमद फैज़ और नूनकीम राशिद के बाद पाकिस्तान की आधुनिक उर्दू शायरी का सबसे बड़ा नाम है.
मुनीर अपने मिज़ाज, अंदाज़ और आवाज़ के लिहाज़ से अनोखे शायर थे. यह अनोखापन उनके शब्दों में भी नज़र आता है. शब्दों में पिरोए हुए विषयों में भी जगमगाता है और उस इमेजरी से भी नकाब उठाता है जो उनकी शायरी में एक भाषा की रिवायत में कई मुल्की और ग़ैरमुल्की भाषाओं की विरासत को दर्शाती है.
वह पैदायशी पंजाबी थे. पंजाब की अज़ीम लोक विरासत में शामिल सूफियाना इंसानियत, जिनका शुरूआती रूप बाबा फ़रीद के दोहो में बिखरा हुआ है, मुनीर नियाज़ी की नज्मों और ग़ज़लों की ज़ीनत है.
उनकी शायरी का केंद्रीय किरदार, समय-समय पर बदलती रियासत से दूर होकर उन राहों में चलता फिरता नज़र आता है जहाँ दरख़्त, इंसान, पहाड़, आसमान परिंदे, दरिंदे और नदियाँ एक ही ख़ानदान से सदस्य है और जो एक दूसरे के दुख-सुख में बराबर शरीक रहते हैं.
इस शायरी में ज़मीन और आसमान के बीच ज़िंदगी उन हैरतों में घिरी दिखाई देती है जो सदियों से सूफी संतो की इबादतों का दायरा रही हैं.
इन हैरतों की झिलमिलाहटों में न ज़मीन की सीमाएँ हैं, न विज्ञान की लानतों से गंदी होती फज़ाएँ हैं. इनमें मानव जीवन प्रकृति का चमत्कार है, जो सीधा और आसान नहीं है. गहरा और पुरइसरार है.
महमूद ग़ज़नवी तलवार के सिपाही थे और मुनीर नियाज़ी कायनात में कुदरत की रहमत की गवाही थे. उनकी रचनाओं की कुछ मिसालें देखिए.
अभी चाँद निकला नहींवह ज़रा देर में उन दरख्तों के पीछे से उभरेगा.और आसमाँ के बड़े चश्त को पार करने की एक और कोशिश करेगा (कोशिशे राख्गाँ)
गुम हो चले हो तुम तो बहुत ख़ुद में ए मुनीरदुनिया को कुछ तो अपना पता देना चाहिए
आदत सी बना ली है तुमने तो मुनीर अपनीजिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना
मुनीर नियाज़ी ने सोमनाथ मंदिर की दौलत की लालच में न अल्लाह का काम तमाम किया और न बाबरी मस्जिद को तोड़कर जय श्रीराम कहा.
उसने सिर्फ़ अपने लफ़्जों में प्रेम और अहिंसा के पैगंबरो-बाबा फ़रीद, वारिस शाह आदि का पैग़ाम आम किया.
मुनीर नियाज़ी (1928-2007) अपनी तबीयत की वजह से आबादी में तन्हाई का मार्सिया था. इस तन्हाई को बहलाने के लिए उन्हीं के एक इंटरव्यू के मुताबिक उन्होंने 40 बार इश्क किया था, लेकिन यह गिनती भी उनकी बेक़रारी को सुकून नहीं दे पाई. इस मुसलसल बेक़रारी के बारे में उन्होंने लिखा है:
इतनी आसाँ ज़िंदगी को इतना मुश्किल कर लियाजो उठा सकते न थे वह ग़म भी शामिल कर लिया
मुनीर नियाज़ी ने कई पाकिस्तानी फ़िल्मों में गीत भी लिखे थे, इनमें कुछ गीत अच्छे और नर्म लफ़्जों के कारण काफ़ी पसंद भी किए गए. कुछ गीतों के मुखड़े यूँ हैं:
उस बेवफ़ा का शहर है और हम हैं दोस्तो...
या फिर
कैसे-कैसे लोग हमारे दिल को जलाने आ जाते है
और एक यह भी,
जिसने मेरे दिल को दर्द दिया, उस शख़्स को मैंने भुला दिया
मुनीर नियाज़ी वक़्त और उसके ग़ैर-इंसानी बर्ताव से इतने उदास थे कि चालीस बार इश्क़ करने के बावजूद अपने माँ-बाप की इकलौती औलाद की तरह वह तमाम उम्र इकलौते ही रहे. उन्हें अपना नाम अजीज़ था कि इसमें किसी और की शिरकत उन्हें गवारा नहीं हुई. उनके वारिसों में उनकी बेवा के अलावा कोई और नहीं.
शाम आई है शराबे तेज़ पीना चाहिएहो चुकी है देर अब ज़ख्मों को सीना चाहिए.

2 टिप्‍पणियां:

haribansh ने कहा…

dadaji hindu-muslim ekta ke prateek. garibo ke rahanuma hai.

dinesh maurya LL.M ने कहा…

One pioneer of sociolism,Sri RAMKARAN YADAY ,popular among people as DADA IS the back bone of real coomunist ideology, and protector of cooman poor people.We salute him and his ideology.If any party follow his idealogy, In real sense, he is the really fulfill the interest and will of the people . so it is in the interet of common people , society and country to follow their idealogy, and DEVELOP INDIA with NEW EDUCATION of SOCIAL HARMONY. LOVE PEOPLE and LOVE GOD.